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Friday, November 18, 2011

Spiritual thought

झूठा माया-मोह
शिवकुमार गोयल
Story Update : Thursday, November 17, 2011 8:16 PM

सभी मतों और पंथों के आचार्यों ने लोभ, मोह, माया, राग, द्वेष आदि सभी दुगुर्णों को आत्मज्ञान की प्राप्ति में बाधक बताया है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, लोभ, मोह, माया, राग, द्वेष आदि अवगुण मनुष्य के पतन का कारण बनते हैं। जब तक इन दुगुर्णों का त्याग करके मनुष्य अपने मन को छल रहित, निर्मल नहीं बनाएगा, उसका कल्याण असंभव है।

आचार्य चाणक्य ने नीतिशास्त्र में कहा है, लोभ सबसे बड़ा अवगुण है, निंदा सबसे बड़ा पाप है, सत्य सबसे बड़ा तप है, मन की पवित्रता तीर्थों में वास करने के समान पुण्यार्थक है। चाणक्य कहते हैं, अज्ञानी लोग स्वर्णाभूषणों के मोह में पागल बने घूमते रहते हैं, जबकि हमेशा साथ रहने वाला आभूषण तो सत्कर्मों से यश के रूप में प्राप्त किया जाता है। लोग धन-संपत्ति, जिसे कभी भी छीना जा सकता है, हासिल करने के पीछे लगे रहते हैं, जबकि सबसे बड़ी संपत्ति तो विद्या है।

आचार्य भर्तृहरि ने लिखा है, लोभ, मोह, माया आदि ऐसे पातक हैं, जो बड़े से बड़े पुण्यात्मा के मन को डांवाडोल कर घोर से घोर पाप कर्म करने को उद्धत कर देते हैं। मनुष्य घृणित कर्म करने को भी सहसा तत्पर हो जाता है। अतः सबसे पहले लोभ, लालच व माया-मोह जैसे दुगुर्णों का त्याग करना चाहिए।

संत कबीर अपनी साखी में कहते हैं, संसार में माया-मोह सब झूठा है। इसमें दुख ही दुख भरा है। जिस घर में माया-मोह जितना अधिक है, वहां उतना अधिक दुख है। आज चारों ओर फैले भ्रष्टाचार का मूल भी माया-मोह ही है।
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